बुधवार, 9 नवंबर 2022

अब जाग

 

 अब जाग



 

देह है जो 'दे' सबको,

न कर मोह उसका,

छोड़ना है एक दिन जिसको,

झंझट हैं सब तर्क,

उलझाने की विधियाँ हैं,

ये कहा उसने,

ये किया उसने,

ये चालाकी,

ये छल -कपट,

बीत गये कहते -कहते जनम अनंत,

अब जाग और मिलादे खुद को हरी की इच्छा में,

नाम का ले आसरा,

जो है  भवसागर का एकमात्र सहारा।।

रिद्धिमा

9-11-22 

सोमवार, 1 फ़रवरी 2021

विद्या ददाति विनयं

 ..

   विद्या ददाति विनयं                         

विद्या ददाति विनयं,

विनयाद् याति पात्रताम्।

पात्रत्वात् धनमाप्नोति,

धनात् धर्मं ततः सुखम्॥


सामान्य हिन्दी भावार्थ:

विद्या विनय देती है, विनय से पात्रता आती है, पात्रता से धन आता है, धन से धर्म होता है, और धर्म से सुख प्राप्त होता है।




यहां सबसे पहले हम यह समझने का प्रयास करेंगे कि विद्या क्या है ? क्या जो जानकारी हमें प्राप्त होती हैं उसे ही विद्या कहते हैं?

 तो ज्यातर हम पाएंगे की अधिक जानकारी वाले व्यक्तित्व या जो लोग अधिक जानकारी वाले होते हैं, उनमें अपनी जानकारी का उतना ही घमण्ड होता है।  

अब पात्रता से क्या अर्थ है , और धन भी क्या वहीं है ? जो हमें समझ में आता है।  और तो और -धन से धर्म - यह तो बहुत ही बड़ा प्रश्न खड़ा करता है।  

और धन से नहीं अपितु धर्म से सुख। 


आज के युग में जब हर कोई अपने जीवन को अधिक से अधिक समृद्ध बनाने की दौड़ में लगा है , तब हमें दिन पर दिन दुःखी करोड़ पति और अरब पति अधिक दिखाई देते हैं। 

एक रिक्शे वाला दिन भर रिक्शा चलाएगा रात को थोड़ी सब्जी घर ले के जायेगा , बीबी बच्चों के साथ खायेगा और बहुत ख़ुशी ख़ुशी अपना जीवन बिताएगा , उसे फुर्सत ही नहीं दुखी होने के लिए। 

कुछ बहुत अपमान जनक हो जायेगा तो खुद को ज्यादा सही से सांत्वना दे पायेगा बजाय के उस व्यक्ति के जो बहुत अमीर होगा।  


कोई भी कार्य से पहले धर्म का विचार शायद एक अमीर की अपेक्षा एक गरीब ज्यादा करेगा। 


मुझे याद आता है कि - मेरे यहां घरेलू काम करने वाली लड़की को जब मैंने पूछा  कि क्या वह मेरी मित्र के यहां भी काम कर देगी तो उसने कहा कि वहां कोई और कार्यरत है और वह किसी और का काम छीन कर कार्य करने की इच्छुक नहीं है।   जब कि हम रोज किसी न किसी से काम छीनते ही रहते हैं। 

सोचेंगे तो हमारे पास बहुत तर्क होंगे पर हम उसकी अपनी समझ देखेंगे तो पायेंगे कि हमने इस बारे में कभी सोचा तक नहीं। 


मेरे विचार से विद्या का सम्बन्ध जानकारियों से न होकर ज्ञान से है जो तत्व का बोध कराती है।  यहां आप ईश्वर की न भी बात करना चाहें तो भी स्वयं को तो अस्तित्व में पाते ही हैं , वरना क्या समझना है और किसको समझना है ?

वैसे आज ऐसी पीढ़ी की भी कमी तो नहीं जो कहती है कि जानने की कोई जरूरत नहीं है हमें। 

यदी आप सही से अपने धर्म का सहज निर्वाह कर रहे हैं और खुश हैं - तो सच में कोई आवश्यकता नहीं। 

लेकिन जैसे अगर हमें कोई बीमारी है तो सबसे पहले हमें हमें स्वीकार करना पड़ता है कि हम बीमार हैं तभी तो इलाज कराएँगे ऐसे ही -

ज्ञान या विद्या क्या है ये हम नहीं जानते और कैसे जान सकते हैं ये समझने के लिए हमें उत्सुक होना होगा .. 

जैसे न्यूटन के मन में हुआ कि यह फल नीचे ही क्यों गिरता है ; यह शुरुवात होती है किसी भी विषय को गहराई से जानने  के लिए। 


अभी यहां इस विषय को समझने के लिए मैं आपको मेरे ही दूसरे ब्लॉग पर जाने के लिए आग्रह करुँगी - 

अपने को जानो

यहां हमने आत्म ज्ञान के विषय में क्या नहीं होता है, कुछ दूर तक चर्चा की।  जैसे आप जानते हैं कि दूध में घी या पनीर है ही या कि धुएँ में अग्नि है ही ऐसे ही सारी श्रष्टि में केवल एक एनर्जी या शक्ति ही काम कर रही है।  

यद्यपि यह वह विषय है जिसके विषय में वेदों ने भी नेति नेति कहा है तो मैं क्या कहूँ? ,

 जानने वाले व्यक्ति को इस विषय में "ऐसा नहीं है" इतना ही कह पाते हैं। 

फिर भी जैसे बंधी हुई नाव में चप्पू चलाने से वह कहीं नहीं पहुँचती ऐसे ही -


                    छिन्नसंशयः 

 

शंशय के नाश हुए बिना इस श्लोक की शुरुवात भी नहीं होगी।  

हाँ यहाँ ये ध्यान देने योग्य है कि मैं किसी भी प्रकार की धार्मिक या सांप्रदायिक प्रथाओं का विरोध बिल्कुल नहीं कर रही वल्कि वो सब हजारों रास्ते हैं हमारे इस एक मंजिल तक पहुँचने के लिए।  

पर जैसे दिमाग लगा कर हम दिमाग को शान्त नहीं कर सकते ऐसे ही संसार की महत्ता को मानते हुए इसकी असत्यता पर विश्वास नहीं हो  सकता।

यद्यपि यहां फिर एक विरोधाभास प्रतीत हो रहा है - कि कुआ जैसा होगा पानी भी तो वैसा ही होगा , यानि हम सत्य की संतान असत्य कैसे हो सकते हैं।  

इसके विषय में श्रीमद भागवत में सही है - 


ज्ञानं परमगुह्यं मे यद् विज्ञानसमन्वितम् ।

सरहस्यं तदङ्गं च गृहाण गदितं मया ॥ 

जो मूल तत्व को छोड़ कर प्रतीत होता है और आत्मा में प्रतीत नहीं होता , उसे आत्मा की माया समझो।  जैसे (वस्तु का) प्रतिबिम्ब अथवा अंधकार (छाया)होता है।  



 यह बहुत ही गूढ़ विषय है। 

मैं भी आपके साथ यात्रा में ही हूँ लेकिन कहीं अगर आभास हो पाया हो कि विद्या क्या हो सकती है तो निश्चित ही हम विनय , पात्रता , धन , धर्म और फिर अंत में - 

"पायो परम विश्राम "

को भी समझ पाएंगे।  अर्थात सुःख क्या है समझ पाएंगे। 

यद्यपि अपनी समझ से कुछ कहना तो चाहती हूँ पर अभी मुझे लगता है कि मैं जब तक पहला अध्याय नहीं समझ लूँ  तब तक बाकि के विषय में क्या कहूं।  

शेष शुभ 🙏

मंगलवार, 27 अक्तूबर 2020

ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय

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 ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय

प्रेम उस कविता की आह की अंतरध्वनि है जो दिल को अपनी ओर खींचती है , यहां विशेष रूप से मैंने इसे कविता इसलिए कहा है क्यों कि कविता के पाँचो रस प्रेम में होते है , हालाँ कि मेरी चित्रकारिता बीच में आही  जाती है और अक्सर जो कहा जाता है कि नायिका के गाल गुलाबी हो जाते हैं आदि 'रंग संयोजन' - छटा रस भी प्रतीत तो होता है पर उसकी आवश्यकता वास्तविकता में प्रतीत नहीं होती।  इसलिए प्रेम एक कविता के स्वाद , लय , ध्वनि,और आंनद को लिए झूमती हुई बेल की तरह है।  यह वह मधुर संगीत है जिसका गायन हमेशा से कवी करते आये हैं और ईश्वर के समान कभी पूरा कह नहीं पाए।  

प्रेम कैसा भी हो अगर वास्तविक है तो एक स्तर आता है , जहाँ दिख जाता है कि यह उन दो मानव इकाइयों के बीच नहीं बल्कि ईस्वर के एक अंश का दूसरे अंश के प्रति अर्थात वास्तविकता में ईस्वर के प्रति ही प्रेम है।  कई बार सांसारिक प्रेम की बड़ी आलोचना होती है , पर जिसे यहाँ प्रेम न हुआ वह अव्यक्त से वास्तविक प्रेम कैसे करेगा।  

प्रेम एक झरना है जो भी आस पास होता है उसे शीतलता देता ही है।  प्रेम बयाँ करना मुश्किल है, प्रेम एक अवस्था है,' प्रेम किया नहीं जाता, हो जाता है ', समुद्र की गहराई नापी जा सकती है लेकिन प्रेम की गहराई को ना तो नापा जा सकता है , ना ही तौला जा सकता है | 



कबीर कहतें हैं,


पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय, ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।  



मूलतः हम प्रेम को व्यवहारिक रूप में जानते हैं , पूरा न मिलने पर खीजते हैं लेकिन जिससे खीज रहे हैं वहाँ  कमी ये हुई कि एक तो अपूर्ण से पूर्ण की आशा लगा ली और दूसरा प्रेम तो नाम ही देने का है।  

अब जो प्रेम की सम्पत्ति ले के बैठा हो वह किसी से क्या आशा रखे हाँ पर व्हवहार में इतना सहज नहीं लगता लेकिन अगर वास्तविक प्रेम तक पहुंचना है तो यह भी एक रास्ता है।  

कहते हैं ना - सोने को ही बार - बार परखा जाता है।  

जन्म जन्म से जिस ईस्वर की बात होती है , वह - वह प्रेम ही तो है , लेकिन -


आये थे हरी भजन को ओटन लगे कपास।  



कितने आश्चर्य और हँसी की बात है - जिस ईस्वर ने लोग इसलिए दिए कि हम उनमें ईस्वर का दर्शन कर न केवल खुद 'उनको' पा सकते थे बल्कि खुद ही 'वह' हो सकते थे , उसकी जगह हम बाकी सब करते हैं और सब कुछ होते हुए भी प्रेम की सम्पत्ति के बिना अधूरे ही रहते हैं क्यों कि पूर्णता का केवल एक ही उपाय है इसीलिए तो कबीर उसी को बुद्धिमान मानते हैं जो प्रेम को समझ पाया।  

प्रेम शब्द निकला ही परम से है - तो उस परम के अतिरिक्त कौन  है जो इस प्यास को बुझा पाए , यद्यपि इसके लिए भी तीन स्तर हैं - पहला प्रयास - अपनी और से देने की कोशिश - कोई भी हो।  कई बार उस कहावत का मजाक उड़ाया  जाता है कि कोई एक गाल पर मारे तो दूसरा गाल आगे कर दो पर जिसने महात्मा बुद्ध की अंगुलिमार की कथा सुनी है वो यहां कथानक में व्याप्त प्रेम को जोड़ पाएंगे। 

बुद्ध प्रेम ही हो गए थे इसलिए यह परिवर्तन आया , यहां में उस ढोंग की बात नहीं कर रही - एक कहानी है कि एक पागल हाथी एक आदमी की ओर भढ़ रहा था तो किसी ने टोका - कि हाथी पागल है सामने से हठ जाओ पर उस व्यक्ति ने कहा कि मुझे उसमें ईश्वर के दर्शन हो रहे हैं और हाथी के नीचे आ गया , अरे ईश्वर तो उस टोकने वाले व्यक्ति में भी थे।  यहाँ हमारी मूढ़ता और ढोंग प्रदर्शित होता है न कि उसके प्रति प्रेम।  

संक्षेप में , ईश्वर के समान - प्रेम का वर्णन भी अकथनीय है , जिसे होता है वही जानता है। 

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सोमवार, 7 सितंबर 2020

कस्तूरी कुंडल बसे मृग ढूँढत बन माहि

                                                            ..

           कस्तूरी कुंडल बसे मृग ढूँढत बन माहि 

एक सामान्य प्रार्थना है जो हम बचपन से सुनते आ रहे हैं जिसका वाचन सभी पौराणिक बन्धु भी ईश्वर की उपासना व आरती आदि करते समय गाते हैं। वह है ‘त्वमेव माता च पिता त्वमेव, त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव। त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव, त्वमेव सर्वं मम देव देव।।’ इसमें कहा गया है कि ईश्वर मेरा माता, पिता, बन्धु, सखा, विद्या, धन, सर्वस्व तथा इष्टदेव है।हम ईश्वर के पुत्र हैं। अथर्ववेद में 20/108/2 मन्त्र आता है ‘त्वं हि नः पिता वसो त्वं माता शतक्रतो बभूविथ। अधा ते सुम्नमीमहे।।’ इस वेदमन्त्र में ईश्वर को माता व पिता दोनों कहा गया है और बताया गया है कि निश्चय ही ईश्वर हम सबका माता व पिता है और हम उसके पुत्र-पुत्रियां व सन्तानें हैं। यजुर्वेद 36.9 मन्त्र ‘शन्नो मित्रः शं वरुणः शन्नो भवत्वर्यमा’ में कहा गया है कि ईश्वर हमारा सच्चा मित्र, वरणीय विद्वान तथा न्यायाधीश है।  
अब प्रश्न उठता है कि क्या वस्तुतः हम उसके पुत्र कहलाने के योग्य हैं? क्या हम गुण, कर्म व स्वभाव में अपने पिता परमात्मा के समान हैं?






एक बात अक्सर हम सुनते हैं ये आगे चलके शंकराचार्य या सुभाष या गाँधी या कोई बड़ा नाम जो माता - पिता को पसंद होता है और चाहते हैं कि उनका बच्चा बन जाये वह लेते हैं लेकिन वो ये क्यों नहीं कहते कि मेरा बच्चा है मेरे जैसा होगा।  अब आप इस बात को ईश्वर के साथ जोड़ें - आदि रूप से तो हम उसी की संतान हैं तो क्याहमारे अंदर उनके कुछ गुण हैं जैसे कि क्या बिना चाह के हम उपकार कर पाते हैं , अच्छा हो या बुरा हम सभी के साथ समानता रख पाते हैं , करुणा , न्यायप्रियता , तप , उदासीनता और सबसे जरूरी अखंड प्रसन्नता।  स्वयं विचार करें - उस सर्वज्ञ से छुप कर क्या कोई झूठ बोल सकता है , क्या चोरी कर सकता है , कोई भी कार्य जो अगर वो परम पिता प्रत्यक्ष हमारे साथ हो तो क्या हम करेंगे , जब ऐसा विचार हमारे साथ होगा तो सवयं ही वो बातें जो उससे दूर ले जा रहीं हैं छूट जाएँगी और हम शायद उसकी संतान कहलाने योग्य हो पाएं।  

अब आप लोगों को शायद लगेगा ये सब बकवास पुराने समय की है लेकिन वह खुश्बू जो आपकी रूह में बसी है उसका क्या करोगे।  अंततः सभी वह परम सुख चाहते हैं जिसका नाम ईश्वर है अगर ऐसा न होता तो जीवन भर जिस एक चीज को पाने के लिए हम अपनी जान लगा देते हैं उसके मिलने के बाद न तो हमें ज्यादा ख़ुशी होती है, बल्कि फिर हम और जोरों से कुछ और चाहने लगते हैं फिर कुछ और फिर कुछ और।  क्या यह सबसे हमें समझ नहीं जाना चाहिए की वास्तविकता में हम कुछ और खोज रहे हैं और वह कहीं बाहर है भी नहीं।  उसी परम तक तो पहुंचना है या कहूं तो ठहरना है।  अभी आपको फिर मेरी बात बड़ी विरोधाभासी लग रही होगी पर जैसे जैसे आप आगे भडेंगे तो खुद ही जान जायेंगे कि खुश्बू आपके खुद के ही अंदर है और उसी को देखना है।  इसी को कबीर ने कहा है -

                           कस्तूरी कुंडल बसे मृग ढूँढत बन माहि ।
                           ज्यों घट घट में राम हैं दुनिया देखत नाहि ।।

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पीवत राम रस लगी खुमारी

                                                                       ..

                            पीवत राम रस लगी खुमारी


 हम चेतन सत्ता होने से ज्ञान एवं कर्म की सामथ्र्य रखते हैं और इससे ईश्वर को जानकर अपने सभी दुःख व क्लेश दूर कर जन्म व मरण के बन्धन व दुःखों से मुक्त होकर मोक्ष की प्राप्ति कर सकते हैं। ये ऐसे  है जैसे की पूर्ण चाँद बादलों में छुप जाये ।  ईश्वर ने हमे ज्ञान का पूर्ण प्रकाश दिया है पर हम ही हैं जो थोड़े समय भी स्थिर नहीं होते , इसी के लिए सारी योग साधनायें हैं।   इसका उपाय वेद और वैदिक साहित्य सहित , वैदिक विद्वानों की संगति तथा योगाभ्यास आदि कार्य हैं। सन्ध्या व अग्निहोत्र–देव–यज्ञ को करने से भी मनुष्य ईश्वर की निकटता व सान्निध्य को प्राप्त करता है। यह कार्य मनुष्य को ईश्वर से जोड़ते व उसके अनुकूल कर्मों का कर्ता व आचारवान बनाते हैं। आजकल लोग स्कूली ज्ञान प्राप्त कर डाक्टर, इंजीनियर, सरकारी कर्मचारी, बिजनेस मैन तथा राजनीतिककर्मी बन जाते हैं यहां जीवन को सांसारिक रूप से चलाने के लिए ये सभी आवशयक हैं लेकिन जीवन जिस कार्य के लिए मिला है व् उसके नैतिक मूल्य व् खुद जीवन का रस ( व्यसनों से रहित ) कैसे मिल  सकता है ये सब हम भूलते जा रहे हैं।  ये सब वस्तुतः स्किल हैं जो अगर हम स्वयं को जान गए तो बिना किसी संशय के आसानी से सीख सकते हैं लेकिन योगा के नाम पर पी. टी. हमें सिखाई जाती है, वैदिक आचरण के नाम पर केवल कर्मकांड, और यहां तोता बनने की शिफारिश भी नहीं हो रही ।

वास्तविकता में वह ज्ञान भी नहीं बल्कि उसका भी श्रोत है--  कुछ हद तक यह बोध है जो बुद्ध को प्राप्त हुआ यद्यपि उसे सही रूप में वर्णित भी नहीं किया जा सकता।   जो संत कबीर को अनपढ़ होते हुए भी ग्यानी संत कहलाता है , नानक को कहने पर मजबूर करता है - '' एक ओंकार सत नाम '' क्या है वो नाम ?  क्या है वो स्थिति जहां आपका मन निर्द्वन्द हो जाता है।   





जैसे कि किसी बच्चे को बहुत छोटे पन में जो झुनझुने पसन्द आते हैं वह उन्हें जिंदगी भर नहीं लिए रहता, कुछ और अच्छा मिलने पर वह अपने आप छूट जाता है बल्कि छोड़ने का प्रयास भी नहीं करना पड़ता ऐसे ही जब हम अधिक स्वाद वाली  वस्तु या ज्ञान प्राप्त करते हैं तो सांसारिक व्यसन को छोड़ना नहीं पड़ता वो खुद छूट जाते हैं इसी को संत कबीर ने कहा है - ''पीवत राम रस लगी खुमारी''     जैसे आपने कोई मिश्री की डली मुँह में रख ली हो और उसका निरंतर स्वाद ले रहे हों क्यों की स्वंय का कहें या ईश्वर का भान होना सारे शंषय हर लेता है और व्यक्ति मुक्त होकर ( आंतरिक रूप से ) जीवन का आनन्द लेता है।  

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रविवार, 6 सितंबर 2020

सीस उतारे भुई धरे तब पइसे घर माहि

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                    सीस उतारे भुई धरे तब पइसे घर माहि

 
यह ज्ञान और प्रेम की एकता आसान नहीं है. इसीलिए चेताते रहते हैं. पहले वे सकारात्मक ढंग से बताते हैं कि यह प्रेम का घर है, इसमें अदब से जाइए. हमारी आदत है कि हम चीजों को हल्के में ले लेते हैं.  इसीलिए कबीर  आगाह करते हैं कि यह खाला (मौसी) का घर नहीं है. जैसे खाला का घर खुला हुआ है, जब चाहे जैसे चाहे आ जा सकते हैं, प्रेम के घर में वैसे  नहीं आ जा सकते. इस घर में आने जाने का अनुशासन है. ज्ञान के घर में प्रवेश करने की विधि है. उसका भी अनुशासन है।    




‘सीस उतारे भुई धरे तब पइसे घर माहि’. सीस उतार कर उसे जमीन पर रखने का अर्थ है- ‘अहंकार का विसर्जन’ ,   ज्ञान और प्रेम दोनों की प्राप्ति के लिए अहंकार का विसर्जन अर्थात त्याग आवश्यक है- अहंकार इतनी जगह घेर  लेता है कि बाकी किसी चीज के लिए जगह ही नहीं बचती।   अहंकार भी कई तरह के होते हैं- जाति का, कुल का, ज्ञान का, शक्ति का, कभी सत्ता का तो कभी सुंदरता  का अहंकार।   कभी-कभी पूर्व धारणाओं का अहंकार होता है, जो चीजों को सही परिप्रेक्ष्य  में देखने ही नहीं देता. कभी भेद  बुद्धि सही ढंग से देखने में बाधा पहुंचाती है।    

सत्य एक है कि अनेक -  आमतौर पर यह धारणा है कि सत्य एक है. हमारा सामान्य बोध भी  यही कहता है कि सत्य एक है. पहला सवाल तो यही है कि सत्य को लेकर कई सारे मत मतांतर हैं. प्रश्न इस  बात का भी हो सकता  है कि सत्य एक है कि अनेक. सब अपने अपने सत्य को सत्य मानते हैं. अनेक समूह और संप्रदाय हैं, अनेक धर्म हैं, अनेक धर्म ग्रंथ हैं, जो अपने-अपने सत्य को ही सत्य मानते   हैं.  सब अपने सत्य का जयकारा लगा रहे हैं।   

 हमने बहुत सारे ज्ञान अर्जित किए लेकिन 'खुद' का ज्ञान नहीं प्राप्त किया। जैसे मजाक में भी कहा जाता है कि सारी रामायण पढ़ ली और पूछ रहे हो कि राम कौन थे।  सांसारिक सारा ज्ञान होते हुए भी यह जीवन अधूरा है। निरर्थक है। भवसागर पार करने का ज्ञान भी जरूरी है जीवन में। क्या है भवसागर? भावनाओं का, विचारों का सागर जिसमें सभी आकंठ डूबे हुए हैं। और यह सागर हमारा अपना ही बनाया हुआ है। प्रश्नों के तूफान इसमें उभरते रहते हैं, झंझावातों और समस्याओं का तेज ज्वार -भाटा आता रहता है। कैसे पार लगेंगे? हमेशा डूबने का भय रहता है! तैरने का ज्ञान होना जरूरी है, तभी तो डूबने के भय से मुक्त हो पाएंगे! संत-महात्माओं ने जोर देकर ज्ञान की चर्चाएं की है। पोथी-पुराण का ज्ञान नहीं बल्कि 'खुद' का ज्ञान! जिसे 'आत्मज्ञान' भी कहा। भवसागर पार करने की विद्या हमेशा से संत-महापुरुषों ने जिज्ञासुओं को सिखाई और उनका जीवन धन्य हुआ। अर्जुन जैसा महायोद्धा को भी युद्ध के मैदान में, जो कि एक तरह का गहरा भवसागर था, भगवान कृष्ण मल्लाह बनकर 'ज्ञान' की नौका द्वारा पार लगाते हैं । वे कहते हैं कि मिले हुए शरीर को मैं और मेरा मानना मनुष्य की भूल है।  निर्मम निरहंकार होते ही साधक में समता आ जाती है।  जिससे वह करुणा में परिवर्तित होती है।  
बुद्ध की ये बात कि "अप्प दीपो भव" मुझे सबसे ज्यादा अपील करती है। 
मुझे ज्ञान के संदर्भ में जो समझ आती है  वो ये कि अक्षर ज्ञान व व्याकरण ज्ञान के पश्चात जो भी हम सीखते हैं उसमें सबसे ज्यादा अर्थपूर्ण एवं काम आने वाली ज्ञान राशि उतनी ही है जिसे हम स्वयं अर्जित करते हैं; भले ही यह मात्रा में कितना ही न्यून क्यूँ ना हो।  
ज्ञान तो कहीं भी प्राप्त हो सकता है।

रामकृष्ण परमहंस कहते हैं, 'सारी विद्याएं अधूरी हैं। जो परमात्मा को जान गया उसी का जीवन सफल है। जिसने प्रभु का आश्रय लिया है, वही इस भवसागर से पार हो सकता है। शेष लोगों का तो पूरा जीवन ही व्यर्थ में चला जाता है। 'विद्या' वही है जो प्रभु से मिला दे, जो भवसागर पार करा दे -वह ज्ञान सर्व श्रेष्ठ है। और खुद का ज्ञान ही परमात्मा का ज्ञान कहलाता है। ऐसा ज्ञान जो आपकी सारी ग्रथियों को दूर करके- आनन्द दे सके।  


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रविवार, 30 अगस्त 2020

यथा दृष्टि तथा सृष्टि

                                                  ..

                         यथा दृष्टि तथा सृष्टि 

हम अक्सर सुनते हैं कि यथा दृष्टि तथा सृष्टि - अर्थात हम जैसे संसार को देखते है यह संसार हमारे लिए वैसा ही है।  

यहाँ मुझे एक चोपाई रामायण की याद आ गई -

जाकी रही भावना जैसी ,प्रभु मूरत देखि तिन तैसी।  

 जब राम- जनक की सभा में पहुंचे तो कोई उन्हें अपने बेटे के रूप में देख रहा है , कोई योद्धा के रूप में , कोई शत्रु के रूप में , कोई सगे संबंधी के रूप में।  

मतलब एक ही है - वही एक मात्र ईश्वर, एक मात्र चेतना , एक मात्र ऊर्जा सबके अंदर है और सब आपस में अपने अंदर की भावनाओं के  हिसाब से दूसरों को देख रहे होते हैं।  


यह बात ज्यादातर हम महसूस करेंगे कि हम जैसा दूसरों के बारे में सोच रहे होते हैं दूसरा भी हमारे बारे में वैसा ही सोच रहा होता है। 




कई बार ऐसा होता है कि कोई व्यक्ति हमें अच्छा नहीं लगता।  नहीं  लगने का कारण उसकी कुछ आदतें हैं। न चाहते हुए भी हमको उसे झेलना पड़ता है। 

 ऐसे में ये गुस्सा दोनों तरफ से बन रहा होता है।  उसकी हमारे बारे में सोच  है - कि ये ऐसा ही है - और हमारी भी राय बिलकुल वैसी ही होती है।  



सभी के अंदर एक ही ईश्वर है हम सामने कैसे भी हों लेकिन अंदर से हम अलग- अलग लोगों के लिए , अलग -अलग भाव रखते हैं।,और उसके अंदर बैठा हुआ ईश्वर भी हमें उसी भावना से देख रहा होता है।  



दूसरा कोई है ही नहीं।  


जैसे एक व्यक्ति किसी के लिए बहुत बुरा है और दूसरे के लिए अच्छा।  यानि कोई भी पूरी तरह से न अच्छा है न बुरा , हो भी नहीं सकता।  


जैसा कि  हमारे शास्त्रों में और गीता में वर्णित है -  

हम सब सत , रज , तम तीन गुणों से ही मिलकर बने हैं।  प्रत्येक व्यक्ति चाहे वह किसी भी स्थिति का हो , उसमें ये तीनों गुण होते ही हैं।  


अभी इसका वैज्ञानिक पक्ष भी जान लेते हैं - जैसा कि हम जानते हैं की हम सब परमाणु से बने हैं और वह तीन प्रकार के अणुओं से बना है - 

न्यूट्रॉन , प्रोटोन और इलेक्ट्रान।  यह क्रमशः सत , रज और तम के गुणों का ही प्रारूप हैं।  इसीलिए हमारे शास्त्रों को और ऋषियों की बातों को आज के वैज्ञानिक अपनी खोज का आधार बनाते हैं क्यों कि वो सब जो भी बात कहते थे उनका पूर्ण विश्लेषण और वैज्ञानिक कारणों को ध्यान  में रख कर ही कहते थे।   

अभी हम उस पायदान तक नहीं पहुंचे इसका मतलब यह नहीं कि वह बात गलत है।  


 यहां मैंने आपको आध्यात्मिक और वैज्ञानिक कारण दिए हैं और आप अपने  माइंड सेट के हिसाब से इसको समझ और मान सकते हैं।  

अब हम स्वभाविक रूप से इसको कैसे अप्लाई करें यह भी देखते हैं -


अब ऐसे में अगर हम एक लिस्ट बनायें कि क्या वाकई में सामने वाला गलत है या ये हमारे मन का बहम है, अक्सर हमें ये स्वीकार करने में बड़ी दिक्कत आती है कि ये हमारा बहम हो सकता है।  

अब इसको कैसे जांचे - 

१ क्या वह ये हमारे साथ जान बूझकर कर रहा है। 

२ अगर हाँ तो उसका कारण क्या है।  

३ कई बार स्कूल या कार्य क्षेत्र में लोग ऐसा करते हैं जिससे इरिटेशन होती है।  

४ यहां अगर आपके बात करने   से  एक बार में समस्या खतम होती है तो पूरे मन से संवाद के रूप में  बात कर लें।  

और अगर पॉसिबल नहीं है तो मानसिक रूप से दूरी बनाने का प्रयास करें। 

५ आपको अवॉयड नहीं  करना है वरना यह उन्हें और चिढ़ाएगा और उससे आपकी शांति और अधिक ख़त्म होगी इसलिए मेरे हिसाब से आप ऊपर दिए गए - जिस भी बिंदु ( वैज्ञानिक या आध्यत्मिक )को स्वीकार कर पाए उससे अपने को समझा कर शांति दिला सकते हैं।  

६ अपनी स्किल को बढ़ाने पर अपनी शक्ति का उपयोग करें।  

७ जैसे बचपन में हम किसी से लड़ते थे लेकिन दूसरे ही क्षण खेलने लगते थे।  ऐसे ही हर क्षण अलग है यह मान कर आगे बढ़ें। 

८ आपका आगे भड़ना और कैसे भी विरोध , बुराई या उपेक्षा न पाने पर सामने वाले का स्वयं ही ह्रदय परिवर्तन होने लगेगा। 

९ यह ध्यान रखें कि वह सबके साथ खराब नहीं है , इसका मतलब वह बुरा नहीं है। 

१० सबसे अधिक एक चोपाई मुझे प्रेरित करती है आपको भी कहना चाहूंगी - 

   

  सिय राम मय सब जग जानी,

करहु प्रणाम जोरी जुग पानी ।।


आशय - 

पूरे संसार में श्री राम का निवास है, सबमें भगवान हैं और हमें सबको हाथ जोड़कर प्रणाम कर लेना चाहिए।


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अब जाग

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