सोमवार, 7 सितंबर 2020

कस्तूरी कुंडल बसे मृग ढूँढत बन माहि

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           कस्तूरी कुंडल बसे मृग ढूँढत बन माहि 

एक सामान्य प्रार्थना है जो हम बचपन से सुनते आ रहे हैं जिसका वाचन सभी पौराणिक बन्धु भी ईश्वर की उपासना व आरती आदि करते समय गाते हैं। वह है ‘त्वमेव माता च पिता त्वमेव, त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव। त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव, त्वमेव सर्वं मम देव देव।।’ इसमें कहा गया है कि ईश्वर मेरा माता, पिता, बन्धु, सखा, विद्या, धन, सर्वस्व तथा इष्टदेव है।हम ईश्वर के पुत्र हैं। अथर्ववेद में 20/108/2 मन्त्र आता है ‘त्वं हि नः पिता वसो त्वं माता शतक्रतो बभूविथ। अधा ते सुम्नमीमहे।।’ इस वेदमन्त्र में ईश्वर को माता व पिता दोनों कहा गया है और बताया गया है कि निश्चय ही ईश्वर हम सबका माता व पिता है और हम उसके पुत्र-पुत्रियां व सन्तानें हैं। यजुर्वेद 36.9 मन्त्र ‘शन्नो मित्रः शं वरुणः शन्नो भवत्वर्यमा’ में कहा गया है कि ईश्वर हमारा सच्चा मित्र, वरणीय विद्वान तथा न्यायाधीश है।  
अब प्रश्न उठता है कि क्या वस्तुतः हम उसके पुत्र कहलाने के योग्य हैं? क्या हम गुण, कर्म व स्वभाव में अपने पिता परमात्मा के समान हैं?






एक बात अक्सर हम सुनते हैं ये आगे चलके शंकराचार्य या सुभाष या गाँधी या कोई बड़ा नाम जो माता - पिता को पसंद होता है और चाहते हैं कि उनका बच्चा बन जाये वह लेते हैं लेकिन वो ये क्यों नहीं कहते कि मेरा बच्चा है मेरे जैसा होगा।  अब आप इस बात को ईश्वर के साथ जोड़ें - आदि रूप से तो हम उसी की संतान हैं तो क्याहमारे अंदर उनके कुछ गुण हैं जैसे कि क्या बिना चाह के हम उपकार कर पाते हैं , अच्छा हो या बुरा हम सभी के साथ समानता रख पाते हैं , करुणा , न्यायप्रियता , तप , उदासीनता और सबसे जरूरी अखंड प्रसन्नता।  स्वयं विचार करें - उस सर्वज्ञ से छुप कर क्या कोई झूठ बोल सकता है , क्या चोरी कर सकता है , कोई भी कार्य जो अगर वो परम पिता प्रत्यक्ष हमारे साथ हो तो क्या हम करेंगे , जब ऐसा विचार हमारे साथ होगा तो सवयं ही वो बातें जो उससे दूर ले जा रहीं हैं छूट जाएँगी और हम शायद उसकी संतान कहलाने योग्य हो पाएं।  

अब आप लोगों को शायद लगेगा ये सब बकवास पुराने समय की है लेकिन वह खुश्बू जो आपकी रूह में बसी है उसका क्या करोगे।  अंततः सभी वह परम सुख चाहते हैं जिसका नाम ईश्वर है अगर ऐसा न होता तो जीवन भर जिस एक चीज को पाने के लिए हम अपनी जान लगा देते हैं उसके मिलने के बाद न तो हमें ज्यादा ख़ुशी होती है, बल्कि फिर हम और जोरों से कुछ और चाहने लगते हैं फिर कुछ और फिर कुछ और।  क्या यह सबसे हमें समझ नहीं जाना चाहिए की वास्तविकता में हम कुछ और खोज रहे हैं और वह कहीं बाहर है भी नहीं।  उसी परम तक तो पहुंचना है या कहूं तो ठहरना है।  अभी आपको फिर मेरी बात बड़ी विरोधाभासी लग रही होगी पर जैसे जैसे आप आगे भडेंगे तो खुद ही जान जायेंगे कि खुश्बू आपके खुद के ही अंदर है और उसी को देखना है।  इसी को कबीर ने कहा है -

                           कस्तूरी कुंडल बसे मृग ढूँढत बन माहि ।
                           ज्यों घट घट में राम हैं दुनिया देखत नाहि ।।

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पीवत राम रस लगी खुमारी

                                                                       ..

                            पीवत राम रस लगी खुमारी


 हम चेतन सत्ता होने से ज्ञान एवं कर्म की सामथ्र्य रखते हैं और इससे ईश्वर को जानकर अपने सभी दुःख व क्लेश दूर कर जन्म व मरण के बन्धन व दुःखों से मुक्त होकर मोक्ष की प्राप्ति कर सकते हैं। ये ऐसे  है जैसे की पूर्ण चाँद बादलों में छुप जाये ।  ईश्वर ने हमे ज्ञान का पूर्ण प्रकाश दिया है पर हम ही हैं जो थोड़े समय भी स्थिर नहीं होते , इसी के लिए सारी योग साधनायें हैं।   इसका उपाय वेद और वैदिक साहित्य सहित , वैदिक विद्वानों की संगति तथा योगाभ्यास आदि कार्य हैं। सन्ध्या व अग्निहोत्र–देव–यज्ञ को करने से भी मनुष्य ईश्वर की निकटता व सान्निध्य को प्राप्त करता है। यह कार्य मनुष्य को ईश्वर से जोड़ते व उसके अनुकूल कर्मों का कर्ता व आचारवान बनाते हैं। आजकल लोग स्कूली ज्ञान प्राप्त कर डाक्टर, इंजीनियर, सरकारी कर्मचारी, बिजनेस मैन तथा राजनीतिककर्मी बन जाते हैं यहां जीवन को सांसारिक रूप से चलाने के लिए ये सभी आवशयक हैं लेकिन जीवन जिस कार्य के लिए मिला है व् उसके नैतिक मूल्य व् खुद जीवन का रस ( व्यसनों से रहित ) कैसे मिल  सकता है ये सब हम भूलते जा रहे हैं।  ये सब वस्तुतः स्किल हैं जो अगर हम स्वयं को जान गए तो बिना किसी संशय के आसानी से सीख सकते हैं लेकिन योगा के नाम पर पी. टी. हमें सिखाई जाती है, वैदिक आचरण के नाम पर केवल कर्मकांड, और यहां तोता बनने की शिफारिश भी नहीं हो रही ।

वास्तविकता में वह ज्ञान भी नहीं बल्कि उसका भी श्रोत है--  कुछ हद तक यह बोध है जो बुद्ध को प्राप्त हुआ यद्यपि उसे सही रूप में वर्णित भी नहीं किया जा सकता।   जो संत कबीर को अनपढ़ होते हुए भी ग्यानी संत कहलाता है , नानक को कहने पर मजबूर करता है - '' एक ओंकार सत नाम '' क्या है वो नाम ?  क्या है वो स्थिति जहां आपका मन निर्द्वन्द हो जाता है।   





जैसे कि किसी बच्चे को बहुत छोटे पन में जो झुनझुने पसन्द आते हैं वह उन्हें जिंदगी भर नहीं लिए रहता, कुछ और अच्छा मिलने पर वह अपने आप छूट जाता है बल्कि छोड़ने का प्रयास भी नहीं करना पड़ता ऐसे ही जब हम अधिक स्वाद वाली  वस्तु या ज्ञान प्राप्त करते हैं तो सांसारिक व्यसन को छोड़ना नहीं पड़ता वो खुद छूट जाते हैं इसी को संत कबीर ने कहा है - ''पीवत राम रस लगी खुमारी''     जैसे आपने कोई मिश्री की डली मुँह में रख ली हो और उसका निरंतर स्वाद ले रहे हों क्यों की स्वंय का कहें या ईश्वर का भान होना सारे शंषय हर लेता है और व्यक्ति मुक्त होकर ( आंतरिक रूप से ) जीवन का आनन्द लेता है।  

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रविवार, 6 सितंबर 2020

सीस उतारे भुई धरे तब पइसे घर माहि

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                    सीस उतारे भुई धरे तब पइसे घर माहि

 
यह ज्ञान और प्रेम की एकता आसान नहीं है. इसीलिए चेताते रहते हैं. पहले वे सकारात्मक ढंग से बताते हैं कि यह प्रेम का घर है, इसमें अदब से जाइए. हमारी आदत है कि हम चीजों को हल्के में ले लेते हैं.  इसीलिए कबीर  आगाह करते हैं कि यह खाला (मौसी) का घर नहीं है. जैसे खाला का घर खुला हुआ है, जब चाहे जैसे चाहे आ जा सकते हैं, प्रेम के घर में वैसे  नहीं आ जा सकते. इस घर में आने जाने का अनुशासन है. ज्ञान के घर में प्रवेश करने की विधि है. उसका भी अनुशासन है।    




‘सीस उतारे भुई धरे तब पइसे घर माहि’. सीस उतार कर उसे जमीन पर रखने का अर्थ है- ‘अहंकार का विसर्जन’ ,   ज्ञान और प्रेम दोनों की प्राप्ति के लिए अहंकार का विसर्जन अर्थात त्याग आवश्यक है- अहंकार इतनी जगह घेर  लेता है कि बाकी किसी चीज के लिए जगह ही नहीं बचती।   अहंकार भी कई तरह के होते हैं- जाति का, कुल का, ज्ञान का, शक्ति का, कभी सत्ता का तो कभी सुंदरता  का अहंकार।   कभी-कभी पूर्व धारणाओं का अहंकार होता है, जो चीजों को सही परिप्रेक्ष्य  में देखने ही नहीं देता. कभी भेद  बुद्धि सही ढंग से देखने में बाधा पहुंचाती है।    

सत्य एक है कि अनेक -  आमतौर पर यह धारणा है कि सत्य एक है. हमारा सामान्य बोध भी  यही कहता है कि सत्य एक है. पहला सवाल तो यही है कि सत्य को लेकर कई सारे मत मतांतर हैं. प्रश्न इस  बात का भी हो सकता  है कि सत्य एक है कि अनेक. सब अपने अपने सत्य को सत्य मानते हैं. अनेक समूह और संप्रदाय हैं, अनेक धर्म हैं, अनेक धर्म ग्रंथ हैं, जो अपने-अपने सत्य को ही सत्य मानते   हैं.  सब अपने सत्य का जयकारा लगा रहे हैं।   

 हमने बहुत सारे ज्ञान अर्जित किए लेकिन 'खुद' का ज्ञान नहीं प्राप्त किया। जैसे मजाक में भी कहा जाता है कि सारी रामायण पढ़ ली और पूछ रहे हो कि राम कौन थे।  सांसारिक सारा ज्ञान होते हुए भी यह जीवन अधूरा है। निरर्थक है। भवसागर पार करने का ज्ञान भी जरूरी है जीवन में। क्या है भवसागर? भावनाओं का, विचारों का सागर जिसमें सभी आकंठ डूबे हुए हैं। और यह सागर हमारा अपना ही बनाया हुआ है। प्रश्नों के तूफान इसमें उभरते रहते हैं, झंझावातों और समस्याओं का तेज ज्वार -भाटा आता रहता है। कैसे पार लगेंगे? हमेशा डूबने का भय रहता है! तैरने का ज्ञान होना जरूरी है, तभी तो डूबने के भय से मुक्त हो पाएंगे! संत-महात्माओं ने जोर देकर ज्ञान की चर्चाएं की है। पोथी-पुराण का ज्ञान नहीं बल्कि 'खुद' का ज्ञान! जिसे 'आत्मज्ञान' भी कहा। भवसागर पार करने की विद्या हमेशा से संत-महापुरुषों ने जिज्ञासुओं को सिखाई और उनका जीवन धन्य हुआ। अर्जुन जैसा महायोद्धा को भी युद्ध के मैदान में, जो कि एक तरह का गहरा भवसागर था, भगवान कृष्ण मल्लाह बनकर 'ज्ञान' की नौका द्वारा पार लगाते हैं । वे कहते हैं कि मिले हुए शरीर को मैं और मेरा मानना मनुष्य की भूल है।  निर्मम निरहंकार होते ही साधक में समता आ जाती है।  जिससे वह करुणा में परिवर्तित होती है।  
बुद्ध की ये बात कि "अप्प दीपो भव" मुझे सबसे ज्यादा अपील करती है। 
मुझे ज्ञान के संदर्भ में जो समझ आती है  वो ये कि अक्षर ज्ञान व व्याकरण ज्ञान के पश्चात जो भी हम सीखते हैं उसमें सबसे ज्यादा अर्थपूर्ण एवं काम आने वाली ज्ञान राशि उतनी ही है जिसे हम स्वयं अर्जित करते हैं; भले ही यह मात्रा में कितना ही न्यून क्यूँ ना हो।  
ज्ञान तो कहीं भी प्राप्त हो सकता है।

रामकृष्ण परमहंस कहते हैं, 'सारी विद्याएं अधूरी हैं। जो परमात्मा को जान गया उसी का जीवन सफल है। जिसने प्रभु का आश्रय लिया है, वही इस भवसागर से पार हो सकता है। शेष लोगों का तो पूरा जीवन ही व्यर्थ में चला जाता है। 'विद्या' वही है जो प्रभु से मिला दे, जो भवसागर पार करा दे -वह ज्ञान सर्व श्रेष्ठ है। और खुद का ज्ञान ही परमात्मा का ज्ञान कहलाता है। ऐसा ज्ञान जो आपकी सारी ग्रथियों को दूर करके- आनन्द दे सके।  


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