रविवार, 6 सितंबर 2020

सीस उतारे भुई धरे तब पइसे घर माहि

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                    सीस उतारे भुई धरे तब पइसे घर माहि

 
यह ज्ञान और प्रेम की एकता आसान नहीं है. इसीलिए चेताते रहते हैं. पहले वे सकारात्मक ढंग से बताते हैं कि यह प्रेम का घर है, इसमें अदब से जाइए. हमारी आदत है कि हम चीजों को हल्के में ले लेते हैं.  इसीलिए कबीर  आगाह करते हैं कि यह खाला (मौसी) का घर नहीं है. जैसे खाला का घर खुला हुआ है, जब चाहे जैसे चाहे आ जा सकते हैं, प्रेम के घर में वैसे  नहीं आ जा सकते. इस घर में आने जाने का अनुशासन है. ज्ञान के घर में प्रवेश करने की विधि है. उसका भी अनुशासन है।    




‘सीस उतारे भुई धरे तब पइसे घर माहि’. सीस उतार कर उसे जमीन पर रखने का अर्थ है- ‘अहंकार का विसर्जन’ ,   ज्ञान और प्रेम दोनों की प्राप्ति के लिए अहंकार का विसर्जन अर्थात त्याग आवश्यक है- अहंकार इतनी जगह घेर  लेता है कि बाकी किसी चीज के लिए जगह ही नहीं बचती।   अहंकार भी कई तरह के होते हैं- जाति का, कुल का, ज्ञान का, शक्ति का, कभी सत्ता का तो कभी सुंदरता  का अहंकार।   कभी-कभी पूर्व धारणाओं का अहंकार होता है, जो चीजों को सही परिप्रेक्ष्य  में देखने ही नहीं देता. कभी भेद  बुद्धि सही ढंग से देखने में बाधा पहुंचाती है।    

सत्य एक है कि अनेक -  आमतौर पर यह धारणा है कि सत्य एक है. हमारा सामान्य बोध भी  यही कहता है कि सत्य एक है. पहला सवाल तो यही है कि सत्य को लेकर कई सारे मत मतांतर हैं. प्रश्न इस  बात का भी हो सकता  है कि सत्य एक है कि अनेक. सब अपने अपने सत्य को सत्य मानते हैं. अनेक समूह और संप्रदाय हैं, अनेक धर्म हैं, अनेक धर्म ग्रंथ हैं, जो अपने-अपने सत्य को ही सत्य मानते   हैं.  सब अपने सत्य का जयकारा लगा रहे हैं।   

 हमने बहुत सारे ज्ञान अर्जित किए लेकिन 'खुद' का ज्ञान नहीं प्राप्त किया। जैसे मजाक में भी कहा जाता है कि सारी रामायण पढ़ ली और पूछ रहे हो कि राम कौन थे।  सांसारिक सारा ज्ञान होते हुए भी यह जीवन अधूरा है। निरर्थक है। भवसागर पार करने का ज्ञान भी जरूरी है जीवन में। क्या है भवसागर? भावनाओं का, विचारों का सागर जिसमें सभी आकंठ डूबे हुए हैं। और यह सागर हमारा अपना ही बनाया हुआ है। प्रश्नों के तूफान इसमें उभरते रहते हैं, झंझावातों और समस्याओं का तेज ज्वार -भाटा आता रहता है। कैसे पार लगेंगे? हमेशा डूबने का भय रहता है! तैरने का ज्ञान होना जरूरी है, तभी तो डूबने के भय से मुक्त हो पाएंगे! संत-महात्माओं ने जोर देकर ज्ञान की चर्चाएं की है। पोथी-पुराण का ज्ञान नहीं बल्कि 'खुद' का ज्ञान! जिसे 'आत्मज्ञान' भी कहा। भवसागर पार करने की विद्या हमेशा से संत-महापुरुषों ने जिज्ञासुओं को सिखाई और उनका जीवन धन्य हुआ। अर्जुन जैसा महायोद्धा को भी युद्ध के मैदान में, जो कि एक तरह का गहरा भवसागर था, भगवान कृष्ण मल्लाह बनकर 'ज्ञान' की नौका द्वारा पार लगाते हैं । वे कहते हैं कि मिले हुए शरीर को मैं और मेरा मानना मनुष्य की भूल है।  निर्मम निरहंकार होते ही साधक में समता आ जाती है।  जिससे वह करुणा में परिवर्तित होती है।  
बुद्ध की ये बात कि "अप्प दीपो भव" मुझे सबसे ज्यादा अपील करती है। 
मुझे ज्ञान के संदर्भ में जो समझ आती है  वो ये कि अक्षर ज्ञान व व्याकरण ज्ञान के पश्चात जो भी हम सीखते हैं उसमें सबसे ज्यादा अर्थपूर्ण एवं काम आने वाली ज्ञान राशि उतनी ही है जिसे हम स्वयं अर्जित करते हैं; भले ही यह मात्रा में कितना ही न्यून क्यूँ ना हो।  
ज्ञान तो कहीं भी प्राप्त हो सकता है।

रामकृष्ण परमहंस कहते हैं, 'सारी विद्याएं अधूरी हैं। जो परमात्मा को जान गया उसी का जीवन सफल है। जिसने प्रभु का आश्रय लिया है, वही इस भवसागर से पार हो सकता है। शेष लोगों का तो पूरा जीवन ही व्यर्थ में चला जाता है। 'विद्या' वही है जो प्रभु से मिला दे, जो भवसागर पार करा दे -वह ज्ञान सर्व श्रेष्ठ है। और खुद का ज्ञान ही परमात्मा का ज्ञान कहलाता है। ऐसा ज्ञान जो आपकी सारी ग्रथियों को दूर करके- आनन्द दे सके।  


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