शुक्रवार, 7 अगस्त 2020

अपने को जानो

 ..

अपने को जानो 🌺

सबसे पहली बात यही है और वह यह कि मनुष्य के भीतर कुछ है। और जो उस भीतर के सत्य को जाने बिना जीवन में कुछ भी खोजता है वह व्यर्थ ही खोजता है। यदि मैं यह भी न जान पाऊं कि मैं क्या हूं और कौन हूं, तो मेरी सारी खोज का क्या अर्थ होगा? चाहे वह खोज धन की हो, चाहे पद की, चाहे यश की, चाहे परमात्मा की और चाहे मोक्ष की।

कुछ थोड़े से लोगों को जीवन में ही यह दिखाई पड़ने लगता है कि हाथ खाली हैं। जिनको यह दिखाई पड़ता है कि हाथ खाली हैं, वे संसार की दौड़ छोड़ देते हैं–धन की और यश की, पद की और प्रतिष्ठा की। लेकिन वे लोग भी एक नई दौड़ में पड़ जाते हैं–परमात्मा को पाने की, मोक्ष को पाने की। और मैं यह निवेदन करना चाहूंगी  कि जो भी आदमी दौड़ता है वह हमेशा खाली रह जाता है, चाहे वह परमात्मा के लिए दौड़े और चाहे धन के लिए दौड़े। इसलिए केवल सम्राट ही खाली हाथ नहीं मरते, और भिखारी ही नहीं, बहुत से संन्यासी भी खाली हाथ ही मरते हैं।

तो बाहर के संसार से छुटकारा होता है तो बाहर का परमात्मा पकड़ लेता है। लेकिन भीतर जाना फिर भी नहीं हो पाता। क्योंकि जितने बाहर के मकान हैं उतने ही बाहर के मंदिर हैं। चीज बदल जाती है, स्थिति वही की वही रही आती है। इसलिए जीवन भर कोई प्रार्थना करता है और फिर भी पाता है कि भीतर का खालीपन अपनी जगह है। वह कहीं नहीं गया। जीवन भर भजन करता है, फिर भी आखिर में पाता है कि वे शब्द खो गए हवाओं में, और भीतर जो खाली था वह अब भी खाली है।

सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि।

ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः॥ भगवद्गीता (६.२९)         

योगयुक्तात्मा पुरुष सर्वत्र समत्व का दर्शन करते हुये आत्मा को सब भूतों में स्थित और सब भूतों को आत्मा में कल्पित देखता है। 

   🙏 ऐसे ज्ञानी पुरुष को शरीर, मन और बुद्धि हाथ में पकड़ी हुई कलम की भाँति अपने उपकरण प्रतीत होते हैं। उनके ऊपर उसका पूरा नियन्त्रण रहता है। व्यवहार काल में उसका व्यक्तित्व समन्वित (integrated) होता है। आत्मज्ञान के बिना मनुष्य का व्यक्तित्व सिर के बिना धड़ के समान है। वह एक कबन्ध मात्र है। ऐसे अधूरे व्यक्तित्व में जीवन जीने वाला मनुष्य बहुत भाग-दौड़ करने पर भी भटकता ही रहता है। उसके हाथ कुछ नहीं लगता।


आत्मज्ञानी का व्यक्तित्व पूरा है। वह अपनी आत्मशक्ति से बुद्धि पर नियन्त्रण रखता है, बुद्धि से मन पर, मन से इन्द्रियों पर और इन्द्रियों से शरीर पर नियन्त्रण रखता है। ऊपर से नीचे तक ऐसा नियन्त्रित व्यक्तित्व सशक्त और कुशल होता है। अपने को ऐसा व्यवस्थित बनाना ही है। इसलिए भगवान कहते हैं –

इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः।

मनसस्तु परा बुद्धियों बुद्धः परतस्तु सः॥ भगवद्गीता (३.२२

एवं बुद्धेः परं बुद्ध्वा संस्तभ्यात्मानमात्मना।

जाहं शत्रु महाबाहो कामरूप दुरासदम्॥ भगवद्गीता (३.४३१

अर्थात् इन्द्रियों को स्थूल शरीर से पर यानि श्रेष्ठ बलवान् और सूक्ष्म कहते हैं । इन इन्द्रियों से पर मन है, मन से भी पर बद्धि है और जो बुद्धि से भी अत्यन्त पर है वह आत्मा है। इस प्रकार बुद्धि से श्रेष्ठ आत्मा को जानकर और बुद्धि के द्वारा मन को वश में करके कामरूप दुर्जय शत्रु को जीता जा सकता है।

👉क्या ये ब्लॉग किसी भी प्रकार से आपके लिए सहायक है या आपके सुझाव इस विषय में क्या हैं  ... और आप आगे किन विषयों पर ब्लॉग पढ़ना चाहते हैं  ... कृपया अपने महत्वपूर्ण सुझाव दीजिये 🙏

books are suggested-

1- Apne ko jano 

2- Think like a monk 




कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

aadhyatm

अब जाग

    अब जाग   देह है जो 'दे' सबको, न कर मोह उसका, छोड़ना है एक दिन जिसको, झंझट हैं सब तर्क, उलझाने की विधियाँ हैं, ये कहा उसने, ये किय...