सोमवार, 1 फ़रवरी 2021

विद्या ददाति विनयं

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   विद्या ददाति विनयं                         

विद्या ददाति विनयं,

विनयाद् याति पात्रताम्।

पात्रत्वात् धनमाप्नोति,

धनात् धर्मं ततः सुखम्॥


सामान्य हिन्दी भावार्थ:

विद्या विनय देती है, विनय से पात्रता आती है, पात्रता से धन आता है, धन से धर्म होता है, और धर्म से सुख प्राप्त होता है।




यहां सबसे पहले हम यह समझने का प्रयास करेंगे कि विद्या क्या है ? क्या जो जानकारी हमें प्राप्त होती हैं उसे ही विद्या कहते हैं?

 तो ज्यातर हम पाएंगे की अधिक जानकारी वाले व्यक्तित्व या जो लोग अधिक जानकारी वाले होते हैं, उनमें अपनी जानकारी का उतना ही घमण्ड होता है।  

अब पात्रता से क्या अर्थ है , और धन भी क्या वहीं है ? जो हमें समझ में आता है।  और तो और -धन से धर्म - यह तो बहुत ही बड़ा प्रश्न खड़ा करता है।  

और धन से नहीं अपितु धर्म से सुख। 


आज के युग में जब हर कोई अपने जीवन को अधिक से अधिक समृद्ध बनाने की दौड़ में लगा है , तब हमें दिन पर दिन दुःखी करोड़ पति और अरब पति अधिक दिखाई देते हैं। 

एक रिक्शे वाला दिन भर रिक्शा चलाएगा रात को थोड़ी सब्जी घर ले के जायेगा , बीबी बच्चों के साथ खायेगा और बहुत ख़ुशी ख़ुशी अपना जीवन बिताएगा , उसे फुर्सत ही नहीं दुखी होने के लिए। 

कुछ बहुत अपमान जनक हो जायेगा तो खुद को ज्यादा सही से सांत्वना दे पायेगा बजाय के उस व्यक्ति के जो बहुत अमीर होगा।  


कोई भी कार्य से पहले धर्म का विचार शायद एक अमीर की अपेक्षा एक गरीब ज्यादा करेगा। 


मुझे याद आता है कि - मेरे यहां घरेलू काम करने वाली लड़की को जब मैंने पूछा  कि क्या वह मेरी मित्र के यहां भी काम कर देगी तो उसने कहा कि वहां कोई और कार्यरत है और वह किसी और का काम छीन कर कार्य करने की इच्छुक नहीं है।   जब कि हम रोज किसी न किसी से काम छीनते ही रहते हैं। 

सोचेंगे तो हमारे पास बहुत तर्क होंगे पर हम उसकी अपनी समझ देखेंगे तो पायेंगे कि हमने इस बारे में कभी सोचा तक नहीं। 


मेरे विचार से विद्या का सम्बन्ध जानकारियों से न होकर ज्ञान से है जो तत्व का बोध कराती है।  यहां आप ईश्वर की न भी बात करना चाहें तो भी स्वयं को तो अस्तित्व में पाते ही हैं , वरना क्या समझना है और किसको समझना है ?

वैसे आज ऐसी पीढ़ी की भी कमी तो नहीं जो कहती है कि जानने की कोई जरूरत नहीं है हमें। 

यदी आप सही से अपने धर्म का सहज निर्वाह कर रहे हैं और खुश हैं - तो सच में कोई आवश्यकता नहीं। 

लेकिन जैसे अगर हमें कोई बीमारी है तो सबसे पहले हमें हमें स्वीकार करना पड़ता है कि हम बीमार हैं तभी तो इलाज कराएँगे ऐसे ही -

ज्ञान या विद्या क्या है ये हम नहीं जानते और कैसे जान सकते हैं ये समझने के लिए हमें उत्सुक होना होगा .. 

जैसे न्यूटन के मन में हुआ कि यह फल नीचे ही क्यों गिरता है ; यह शुरुवात होती है किसी भी विषय को गहराई से जानने  के लिए। 


अभी यहां इस विषय को समझने के लिए मैं आपको मेरे ही दूसरे ब्लॉग पर जाने के लिए आग्रह करुँगी - 

अपने को जानो

यहां हमने आत्म ज्ञान के विषय में क्या नहीं होता है, कुछ दूर तक चर्चा की।  जैसे आप जानते हैं कि दूध में घी या पनीर है ही या कि धुएँ में अग्नि है ही ऐसे ही सारी श्रष्टि में केवल एक एनर्जी या शक्ति ही काम कर रही है।  

यद्यपि यह वह विषय है जिसके विषय में वेदों ने भी नेति नेति कहा है तो मैं क्या कहूँ? ,

 जानने वाले व्यक्ति को इस विषय में "ऐसा नहीं है" इतना ही कह पाते हैं। 

फिर भी जैसे बंधी हुई नाव में चप्पू चलाने से वह कहीं नहीं पहुँचती ऐसे ही -


                    छिन्नसंशयः 

 

शंशय के नाश हुए बिना इस श्लोक की शुरुवात भी नहीं होगी।  

हाँ यहाँ ये ध्यान देने योग्य है कि मैं किसी भी प्रकार की धार्मिक या सांप्रदायिक प्रथाओं का विरोध बिल्कुल नहीं कर रही वल्कि वो सब हजारों रास्ते हैं हमारे इस एक मंजिल तक पहुँचने के लिए।  

पर जैसे दिमाग लगा कर हम दिमाग को शान्त नहीं कर सकते ऐसे ही संसार की महत्ता को मानते हुए इसकी असत्यता पर विश्वास नहीं हो  सकता।

यद्यपि यहां फिर एक विरोधाभास प्रतीत हो रहा है - कि कुआ जैसा होगा पानी भी तो वैसा ही होगा , यानि हम सत्य की संतान असत्य कैसे हो सकते हैं।  

इसके विषय में श्रीमद भागवत में सही है - 


ज्ञानं परमगुह्यं मे यद् विज्ञानसमन्वितम् ।

सरहस्यं तदङ्गं च गृहाण गदितं मया ॥ 

जो मूल तत्व को छोड़ कर प्रतीत होता है और आत्मा में प्रतीत नहीं होता , उसे आत्मा की माया समझो।  जैसे (वस्तु का) प्रतिबिम्ब अथवा अंधकार (छाया)होता है।  



 यह बहुत ही गूढ़ विषय है। 

मैं भी आपके साथ यात्रा में ही हूँ लेकिन कहीं अगर आभास हो पाया हो कि विद्या क्या हो सकती है तो निश्चित ही हम विनय , पात्रता , धन , धर्म और फिर अंत में - 

"पायो परम विश्राम "

को भी समझ पाएंगे।  अर्थात सुःख क्या है समझ पाएंगे। 

यद्यपि अपनी समझ से कुछ कहना तो चाहती हूँ पर अभी मुझे लगता है कि मैं जब तक पहला अध्याय नहीं समझ लूँ  तब तक बाकि के विषय में क्या कहूं।  

शेष शुभ 🙏

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