मंगलवार, 27 अक्तूबर 2020

ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय

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 ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय

प्रेम उस कविता की आह की अंतरध्वनि है जो दिल को अपनी ओर खींचती है , यहां विशेष रूप से मैंने इसे कविता इसलिए कहा है क्यों कि कविता के पाँचो रस प्रेम में होते है , हालाँ कि मेरी चित्रकारिता बीच में आही  जाती है और अक्सर जो कहा जाता है कि नायिका के गाल गुलाबी हो जाते हैं आदि 'रंग संयोजन' - छटा रस भी प्रतीत तो होता है पर उसकी आवश्यकता वास्तविकता में प्रतीत नहीं होती।  इसलिए प्रेम एक कविता के स्वाद , लय , ध्वनि,और आंनद को लिए झूमती हुई बेल की तरह है।  यह वह मधुर संगीत है जिसका गायन हमेशा से कवी करते आये हैं और ईश्वर के समान कभी पूरा कह नहीं पाए।  

प्रेम कैसा भी हो अगर वास्तविक है तो एक स्तर आता है , जहाँ दिख जाता है कि यह उन दो मानव इकाइयों के बीच नहीं बल्कि ईस्वर के एक अंश का दूसरे अंश के प्रति अर्थात वास्तविकता में ईस्वर के प्रति ही प्रेम है।  कई बार सांसारिक प्रेम की बड़ी आलोचना होती है , पर जिसे यहाँ प्रेम न हुआ वह अव्यक्त से वास्तविक प्रेम कैसे करेगा।  

प्रेम एक झरना है जो भी आस पास होता है उसे शीतलता देता ही है।  प्रेम बयाँ करना मुश्किल है, प्रेम एक अवस्था है,' प्रेम किया नहीं जाता, हो जाता है ', समुद्र की गहराई नापी जा सकती है लेकिन प्रेम की गहराई को ना तो नापा जा सकता है , ना ही तौला जा सकता है | 



कबीर कहतें हैं,


पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय, ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।  



मूलतः हम प्रेम को व्यवहारिक रूप में जानते हैं , पूरा न मिलने पर खीजते हैं लेकिन जिससे खीज रहे हैं वहाँ  कमी ये हुई कि एक तो अपूर्ण से पूर्ण की आशा लगा ली और दूसरा प्रेम तो नाम ही देने का है।  

अब जो प्रेम की सम्पत्ति ले के बैठा हो वह किसी से क्या आशा रखे हाँ पर व्हवहार में इतना सहज नहीं लगता लेकिन अगर वास्तविक प्रेम तक पहुंचना है तो यह भी एक रास्ता है।  

कहते हैं ना - सोने को ही बार - बार परखा जाता है।  

जन्म जन्म से जिस ईस्वर की बात होती है , वह - वह प्रेम ही तो है , लेकिन -


आये थे हरी भजन को ओटन लगे कपास।  



कितने आश्चर्य और हँसी की बात है - जिस ईस्वर ने लोग इसलिए दिए कि हम उनमें ईस्वर का दर्शन कर न केवल खुद 'उनको' पा सकते थे बल्कि खुद ही 'वह' हो सकते थे , उसकी जगह हम बाकी सब करते हैं और सब कुछ होते हुए भी प्रेम की सम्पत्ति के बिना अधूरे ही रहते हैं क्यों कि पूर्णता का केवल एक ही उपाय है इसीलिए तो कबीर उसी को बुद्धिमान मानते हैं जो प्रेम को समझ पाया।  

प्रेम शब्द निकला ही परम से है - तो उस परम के अतिरिक्त कौन  है जो इस प्यास को बुझा पाए , यद्यपि इसके लिए भी तीन स्तर हैं - पहला प्रयास - अपनी और से देने की कोशिश - कोई भी हो।  कई बार उस कहावत का मजाक उड़ाया  जाता है कि कोई एक गाल पर मारे तो दूसरा गाल आगे कर दो पर जिसने महात्मा बुद्ध की अंगुलिमार की कथा सुनी है वो यहां कथानक में व्याप्त प्रेम को जोड़ पाएंगे। 

बुद्ध प्रेम ही हो गए थे इसलिए यह परिवर्तन आया , यहां में उस ढोंग की बात नहीं कर रही - एक कहानी है कि एक पागल हाथी एक आदमी की ओर भढ़ रहा था तो किसी ने टोका - कि हाथी पागल है सामने से हठ जाओ पर उस व्यक्ति ने कहा कि मुझे उसमें ईश्वर के दर्शन हो रहे हैं और हाथी के नीचे आ गया , अरे ईश्वर तो उस टोकने वाले व्यक्ति में भी थे।  यहाँ हमारी मूढ़ता और ढोंग प्रदर्शित होता है न कि उसके प्रति प्रेम।  

संक्षेप में , ईश्वर के समान - प्रेम का वर्णन भी अकथनीय है , जिसे होता है वही जानता है। 

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