शनिवार, 8 अगस्त 2020

कृष्ण और कर्म योग

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कृष्ण और कर्म योग 

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥


कर्म के बिना जीवन संभव नहीं और कर्म फल पर तुम्हारा अधिकार नहीं है। यह सिद्धांत वास्तविकता में इसलिए निरूपित किया गया ताकि हम कर्म के फल में मोहित न  हों - वरना सफलता मिलने पर हम उसमें आसक्त हो जाते हैं साथ ही सफलता का धमण्ड हो जाता है जबकि असफलता हमें कभी भी उस ब्लॉक बाहर न निकल पाने वाले डर और दुःख में ढकेल देता है।    यदि हम यह सोचें कि जीवन के अनुरूप कर्म हमारी तरफ से ईश्वर की साधना है , क्योँ कि आप ही विचार करें की उसके इस दिए गए शरीर का हम और किस प्रकार सकते हैं अतः - कर्म तो मुझे करना ही है-फल मिले या न मिले,जब यह होगा तो  फिर आप सभी चिन्ताओं से मुक्त होकर कर्म कर पाएंगे ।

''मैं करता हूँ'' यही सारा बंधन है एक बार जो कार्य आप करते हैं उससे पृथक होके दिख लें - वह फिर भी होगा , सही शब्दों में कहें तो आपकी वास्तविकता में कोई आवश्यकता नहीं।  

जैसे कोई घड़ा बड़ी मेहनत से बनाया जाय और वह पानी भरने में , ठंडा करने में अपनी तारीफ समझे कुछ ऐसा ही हम सब  करते हैं।  

अब रही बात कौन से कर्म करने योग्य हैं - तो वस्तुतः जब कर्ता भाव चला जाता है तो केवल वही कार्य बचते हैं जो करने योग्य हैं।  क्योँ कि जब आप कर्ता भाव से रहित होंगे तो कर्म भी निष्काम ही होंगे तो ऐसे में आप कुछ भी अकरणीय कर्म करेंगे ही नहीं।  

* यहां एक बात और विशेष है कि आपको जो कार्य दूसरों के हित में हो वह कार्य करने के लिए भी कहा गया है लेकिन विवेक पूर्वक।  जैसे चोर का हित इसमें है कि वह चोरी कर के ले जाये - तो आपसे ये नहीं कहा जा रहा कि आप चुप रहें या उसकी मदद करें।  आध्यात्मिकता का मतलब मूढ़ होना या निष्क्रिय हो जाना नहीं है अपितु ध्यान पूर्वक समाज की उन्नति के लिए तत्पर होने से है।  

कृष्ण का पूरा का पूरा जीवन बस इसी बात को दर्शाता है उनके जीवन में अहम् ब्रह्ममास्मि की उद्घोषणा ही नहीं थी वे सच में सबको समाहित करके चलने वाले युगपुरुष थे।  वे  सभी के साथ मित्र जैसा ही व्हवहार रखते थे 

उनका जीवन आनंददाई था और फिर भी अगर कोई चिंता करे तो कहते कि सब छोड़ कर मेरी शरण में आ।  

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।

इसका यह मतलब कतई नहीं है कि आप कर्म छोड़ दें।  बल्कि जब आप किसी की शरण ही हो गए तो कोई कर्म न तो आपका है और न आप कर्म करेंगे या न करेंगे - यह निश्चय करने के अधिकारी हैं।   इसी बात को कबीर साहब ने कुछ इस प्रकार कहा है - 

जीवन मरण विचार कर , कूड़े काम निवार, जिन पंथों तुझे चालना सोइ पंथ सवांर .... 


तन को जोगी सब करें, मन को बिरला कोई।सब सिद्धि सहजे पाइए, जे मन जोगी होइ .... 

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books are suggested-


1- Geeta rahsya 


2- karm yoga 

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