गुरुवार, 6 अगस्त 2020

आध्यात्म क्या है

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आध्यात्म क्या है ?
अध्यात्म का सामान्य अर्थ है अन्तर्जगत। प्रश्न उपनिषद के तीसरे प्रश्न में आश्वलायन मुनि का प्रश्न है कि यह प्राण शक्ति किस प्रकार पंचभूतों से बने इस बाह्य भौतिक जगत को धारण करती है और किस प्रकार यही प्राण शक्ति मन और इन्द्रिय आदि आध्यात्मिक अर्थात आंतरिक जगत को धारण करती है। ....कथं बाह्यम् अभिधन्त, कथं आधात्मम् इति।     

                

 गीता के अध्याय 8 में अर्जुन  पूंछते है ”हे पुरूषोत्ताम! वह ब्रह्म क्या है? अध्यात्म क्या है? और कर्म के माने क्या है? (अध्याय 8 श्लोक1, लोकमान्य तिलक का अनुवाद, गीता रहस्य पृष्ठ 489) मूल श्लोक है ‘ किं तद् ब्रह्मं किम् अध्यात्मं किं कर्म पुरूषोत्ताम”। यहां ब्रह्म की जिज्ञासा है, ब्रह्म ईश्वरीय जिज्ञासा है। आगे अध्यात्म जानने की इच्छा है। अध्यात्म ईश्वर या ब्रह्म चर्चा से अलग है। इसीलिए अध्यात्मक का प्रश्न भी अलग है। कर्म भी ईश्वरीय ज्ञान से अलग एक विषय है। इसलिए कर्म विषयक प्रश्न भी अलग से पूछा गया है। अब श्रीकृष्ण का सीधा उत्तार देखिए ”अक्षरं ब्रह्म परमं, स्वभावों अध्यात्म उच्यते – परम अक्षर अर्थात कभी भी नष्ट न होने वाला तत्व ब्रह्म है और प्रत्येक वस्तु का अपना मूलभाव (स्वभाव) अध्यात्म है। 
मानव शरीर के संदर्भ में देखें तो पंचभौतिक शरीर के भीतर स्थित मन बुद्धि व आत्मा का भीतरी जगत ही अध्यात्म जगत है तथा इन भीतरी घटकों का चिन्तन अन्वेषण आध्यात्मिक अन्वेषण है। इस प्रकार अध्यात्म बाह्य से अंतर की तरफ देखना, बाहरी दुनिया से चलकर मन की भीतरी दुनिया की तरफ की यात्रा है।
अध्यात्म शब्द का प्रयोग मुख्यत: दर्शन शास्त्र, धर्म विज्ञान, तंत्र शास्त्र और ब्रह्मविद्या जैसे ज्ञान क्षेत्रों में अधिक किया जाता है, जो भौतिक विज्ञान की तुलना में अधिक गूढ़, अस्पष्ट व रहस्यमय माने जाते हैं। इनमें अध्यात्म से आशय सामान्यत: इस दिखाने देने वाले संसार के पीछे विद्यमान अदृश्य जगत से, अदृश्य कारण से और अदृश्य सत्ता से होता है। इसके साथ ही इस दृश्य सत्ता से जुड़े कार्य व्यापार के विविध संदर्भ भी अध्यात्म के अंतर्गत आ जाते हैं। इस प्रकार अध्यात्म का विस्तार समस्त जड़ चेतन जगत की उत्पत्ति स्थिति पालन और विघटन के पीछे एक मात्र मूल नियंत्रक सत्ता तक हो जाता है जिसे ब्रह्म भी कहा जाता है। पर द्वैतवादी, अद्वैतवादी, शैव, शाक्त, वैष्णव आदि मत अनुसार इस सत्ता के कई और निर्गुण सगुण नाम भी हो सकते हैं।
जीवात्मा का मूल स्वभाव ही अध्यात्म है इसका आशय यही है कि "ईश्वर अंश जीव अविनाशी' (तुलसी) इस जीव का मूल स्वभाव, परमात्मा का अंश होने से परम चैतन्य स्वरूप ही है या कहें कि स्वयं अध्यवत ब्रह्म के समान ही है। जीव की अध्यात्म भाव में स्थिति अर्थात मैं ही ब्रह्म हूं। जब जीव ब्रह्म से हटकर संसार से जुड़ता है तो उसकी स्थिति अध्यात्म भाव से हटकर अधिभौतिक भाव में हो जाती है। तब वह स्वयं को संसार में लिप्त पाता है। यह अध्यात्म भाव जीवात्मा को इस भाव बोध को उपलब्ध हो जाने पर होता है कि वह शरीर नहीं आत्मा है जो परमात्मा का अंशरूप है जो सर्वव्यापी है। इस प्रकार अध्यात्मभाव में स्थित होने पर व्यक्तिगत चेतना सामूहिक सार्वजनिक चेतना बन जाती है।
यहां हम एक महत्वपूर्ण निष्कर्ष पर पहुंच जाते हैं कि अध्यात्म भाव में स्थित व्यक्ति की चेतना व्यक्तिगत चेतना, विस्तारित होकर समस्त जड़ चेतना को अपने में समेट लेती है। अर्थात बूंद में सागर आ जाता है। विवेकानन्द के गुरु परमहंस रामकृष्ण ऐसी ही व्यापक चेतना में रहा करते थे, यही कारण है कि गरीब मल्लाह के शरीर पर चाबुक के निशान उनकी पीठ पर उभर आएं तथा एक बार उन्हें डूबने जैसी अनुभूति हुई तो उसी समय एक जहाज कहीं दूर डूब रहा था जिसकी खबर बाद में मिली। यह मोक्ष की स्थिति है जो पलायन नहीं क्योंकि दुनिया से भागकर कहीं जाया ही नहीं जा सकता।
प्रश्न है कि आध्यात्मिक शक्ति अर्थात ब्रह्म को समझ में आने योग्य कैसे बनाया जा सकता है तथा इस अव्यक्त अंतरमुखी अध्यात्म भाव को सरल सहज और जनसाधारण के व्यवहार के लायक एवं बहिर्मुखी किस प्रकार बनाया जा सकता है। यों तो यह दुष्कर कार्य है इसीलिए सूरदास कहते हैं कि इस अव्यक्त की गति कहने में नहीं आती। यह तो गूंगे का गुड़ है। दूसरी बात यह कि शब्दों या प्रतीकों बिम्बों में बाँधने पर इस अध्यात्म तत्व का या कहे कि आत्मतत्व का भावबद्ध हो जाये ये सीमित हो जाता है और व्याख्या के कारण विकृति को भी प्राप्त होता जाता है। फिर भी लोक शिक्षण के लिए इस अध्यात्म तत्व को जिन प्रतीकों और बिम्बों में व्यक्त किया गया है उसके कारण ही ईश्वर की सगुण उपासना शक्ति शिव, राम, कृष्ण, गणेश आदि शब्दों में की जाती है तथा साधना सोपान बढ़ने पर ये इष्टदेव अव्यक्त ब्रह्मरूप हो जाते हैं। इन सगुण निर्गुण की उपासना में व्यक्तिगत स्तर पर अनुभूत प्रतीकों बिम्बों की जैसे कि यह आत्म तत्व अंगुष्ठ मात्र प्रमाण का है अथवा यह सहस्रशीर्ष सहस्त्रपाद वाला है इत्यादि पर चर्चा को छोड़ दिया गया है। कबीर की साखियों में इस गूढ़ अध्यात्म तत्व का तथा अध्यात्म भाव का बिम्ब विधान बहुत ही सजग साकार रूप में देखा जा सकता है तथा सूर के कुछ कूट पद भी इसी प्रकार के हैं।
अध्यात्म का अर्थ ‘स्व’ ही है.....

वस्तुतः आध्यात्म उस आकाश की तरह है जो सर्व व्यापक है पर बादलों के आने पर उसका आभास होता है।  उस प्रतिबिंब की तरह है जो इस प्राण के रहने से किसी दर्पण में दिखाई देता है ....
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