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गोविंदा और आनन्दा 🙏
कई लोग कहते हैं कि कृष्ण तो अलौकिक थे पर वे जितने अलौकिक थे उतने ही लौकिक भी थे - वो ऐसे बेटे थे कि आज भी हर माँ अपने बेटे में कान्हा को देखती है , मित्र थे तो ऐसे कि हर कोई इनकी मित्रता का उदाहरण देता है , प्रेमी थे तो ऐसे कि हर कोई अपने दिल में कान्हा को बसाता है , पति , राजा , रक्षक हर रूप में वो परम लौकिक थे और भक्तों के लिए तो आज भी वही प्राण आधार हैं।
ब्रिज के कण - कण में आज भी वही दिखता है , हमारी झोली ( सामर्थ ) जितनी है उतना ही हम जान पाते हैं। जिसका स्वरूप ही आनन्द से बना हो उसके गान को कोन गा सकता है -
सच्चिदानंद रूपाय विश्वोत्पत्यादिहेतवे! तापत्रय विनाशाय श्री कृष्णाय वयं नमः।
सच्चिदानंद स्वरूप भगवान् श्री कृष्ण को हम नमस्कार करते हैं , जो इस जगत की उत्पत्ति , स्थिति और विनाश के हेतु तथा आध्यात्मिक , आधिदैविक और आधिभौतिक - तीनों प्रकार के तापों का नाश करनें वाले हैं!
कृष्ण अपने नाम के अनुरूप - कर्षयति इति कृष्णः - जो आकर्षित करे वह कृष्ण।
भगवान श्रीकृष्ण का जीवन १६ कलाओं से पूर्ण हैं । इस बात को कृष्ण की बाल लीलाओं से भी हम समझ सकते हैं । बाल्यकाल में सबसे पहला कार्य गायों को वन में ले जाने का है। वहाँ उनके साथ हर स्तर के गोपबाल जोते हैं । सब अपनी अपनी आर्थिक स्थिति के अनुसार दोपहर की भोजन लाते हैं ।बालकृष्ण बड़े सहज हैं । भोजन करते समय खेल खेल में सबके भोजन को मिलाकर स्वयं अपने हाथों से सबको खिलाकर सहज ही ऊंच-नीच का भेद मिटा समरसता को जगा देते हैं । मटकी फोड़, माखन चोर का खेल भी केवल नटखट लीला नहीं है। वह भी एक बड़ी क्रांति है। यह नन्दग्राम व गोकुल के परिश्रम से उत्पन्न दूघ-दही को कंस के राक्षसों के पोषण के लिये जाने से रोकने का सहज तरीका है। सबसे पहला स्वदेशी आंदोलन।
पूतना, शकटासुर तथा बकासुर जैसे असूरों का नाश व नृत्य कर कालिया मर्दन से कई दशकों से पीड़ित और शोषित लोगों के मध्य आत्मविश्वास आत्मबल को पैदा किया।
कहाँ तो वृन्दावन , कहाँ द्वारका , कहाँ कुरुक्षेत्र - उनका पूरा जीवन - पूर्ण कर्म की शिक्षा देता है साथ ही पूर्ण निर्लिप्तता इसीलिए उन्हें योगेश्वर कृष्ण कहा गया।
कर्म , भक्ति और ज्ञान के जो रास्ते उन्होंने गीता में बताये वह भी मेरे विचार से व्यक्ति को निर्भार करने के ही रास्ते हैं। हम इसे ऐसे समझ सकते हैं कि हम पैदल निकले , हमारे साथ हमारा सामान भी था जो कि हमने अपने सिर पर रखा हुआ है - अब रास्ते में हमारा मित्र मिला और बोला आजाओ मेरी गाड़ी में बैठ जाओ, मैं तुम्हें जहां जाना है -छोड़ देता हूँ , अब हम उसकी गाड़ी में बैठ गए पर सामान को सिर पर ही रखे रखा , मित्र ने कहा - अब गाड़ी में हो इसे उतार दो , तो हम कहने लगे कि तुमने हमें बैठा लिया इतना बहुत है , अब सर का भार आपकी गाड़ी पर नहीं डालूँगा .... सुन कर हँसी आ रही होगी , पर सच बताइये हम सब क्या कर रहे हैं ....
बस यही आनन्द है .... निर्भार , निर्वेर - मस्त उसके भरोसे। हाँ जब जरूरत होगी तो लड़ोगे भी , कर्म से मुक्ति नहीं है - कर्म भाव से मुक्ति है।
इसी लिए जन्माष्टमी को सभी गाते हैं - नन्द घर आनन्द भयो जय कन्हैया लाल की 🙏
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